शब-ए-हिज्र सहरा-ए-ज़ुल्मात निकली
शब-ए-हिज्र सहरा-ए-ज़ुल्मात निकली
मैं जब आँख खोली बहुत रात निकली
मुझे गालियाँ दे गया वो सरीहन
मिरे मुँह से हरगिज़ न कुछ बात निकली
हुआ वादी-ए-क़त्ल सहरा-ए-महशर
मिरी नाश जब रोज़-ए-मीक़ात निकली
कमी कर गया नाज़-ए-पिन्हाँ का ख़ंजर
न जाँ तेरे बिस्मिल की हैहात निकली
तू ऐ 'मुसहफ़ी' अब तो गर्म-ए-सुख़न हो
शब आईं दराज़ और बरसात निकली
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