शब शौक़ ले गया था हमें उस के घर तलक
शब शौक़ ले गया था हमें उस के घर तलक
पर ग़श सा आ गया वोहीं पहुँचे जो दर तलक
गर हम को लग गई हैं कभी हिचकियाँ तो हम
आठ आठ आँसू रोए हैं दो दो पहर तलक
डरता हूँ मैं ये गुम न करे आप को कहीं
फिर ज'अद को हुई है रसाई कमर तलक
परवाना क्या उड़े है चराग़ाँ में तो नहीं
पहुँचा जो कोई शोला तिरे बाल-ओ-पर तलक
सहरा-ए-कुश्तगाँ में तिरे कल गया था मैं
देखूँ तो लाला-ज़ार है हद्द-ए-नज़र तलक
फैलाव बहर-ए-अश्क का अपने मैं क्या कहूँ
पहुँची है मौज गर ये मिरी बहर-ओ-बर तलक
वे दिन किधर गए कि मैं लिख लिख के ख़त-ए-शौक़
जाता था आप गिर्या-कुनाँ नामा-बर तलक
शब उस की बज़्म में जो गए हम तो 'मुसहफ़ी'
ऐसे जमे कि वाँ से न उठ्ठे सहर तलक
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