सौ बार तुम तो सामने आ कर चले गए
सौ बार तुम तो सामने आ कर चले गए
धोका सा एक हम को दिखा कर चले गए
की हम से बाग़बाँ ने ये काविश कि आख़िरश
हम आशियाँ को आग लगा कर चले गए
होने दिया न मुझ से तुम्हें शर्म ने दो-चार
जब मिल गए तो सर को झुका कर चले गए
आता हुआ जो दूर से देखा मुझे तो वे
रस्ते में मुझ से मुँह को छुपा कर चले गए
अब मैं हूँ और वो ज़ुल्फ़ है यारान-ए-बे-वफ़ा
दाम-ए-बला में मुझ को फँसा कर चले गए
ठोकर से अपने पाँव के गुलशन में ख़ुश-क़दाँ
सद फ़ित्ना-हा-ए-ख़ुफ़्ता जगा कर चले गए
है ग़ैर से भी रब्त तुम्हें मैं जो ये कहा
सौगंद मेरे सर की वो खा कर चले गए
आए कभी जो बाग़ में दीवानगान-ए-दश्त
आँखों से जू-ए-ख़ून बहा कर चले गए
हरगिज़ रहा न उन का निशाँ वो जो 'मुसहफ़ी'
क़स्र-ओ-महल ज़मीं पे बना कर चले गए
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