सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
हमारी भी भला क्या ज़िंदगी है
सदा कोई रहा है ने रहेगा
उसी की ज़ात को पाइंदगी है
ख़याल-ए-ख़ूब-रूयाँ क्यूँके छोटे
तबीअत में मिरी ख़्वाहिंदगी है
नज़र अपनी भी वाँ जा ही पड़े है
जहाँ आराइश ओ ज़ेबंदगी है
ग़ज़ल-ख़्वानी कर अब ऐ 'मुसहफ़ी' तर्क
हुआ क़द ख़म ये वक़्त-ए-बंदगी है