न वो वादा-ए-सर-ए-राह है न वो दोस्ती न निबाह है
न वो वादा-ए-सर-ए-राह है न वो दोस्ती न निबाह है
न वो दिल-फ़रेबी के हैं चलन न वो प्यारी प्यारी निगाह है
तिरे हिज्र में मह-ए-सीम-बर कोई ग़ौर से जो करे नज़र
मिरी सुब्ह शाम से है बतर मिरा रोज़ शब से सियाह है
है हर एक बात में अब कजी कि चलन निकाले हैं और ही
न वो रब्त है न वो दोस्ती न वो रस्म है न वो राह है
कोई ज़हर-ए-ग़म पिए ता-ब-कै हुई सर्फ़-ए-साग़र-ए-ग़ैर मय
न वो जोशिश-ए-सर-ए-शाम है न वो वादा-ए-शब-ए-माह है
बने क्यूँके फिर मिरी उस की अब कि ये तफ़रक़ा है बड़ा ग़ज़ब
मुझे उस से अच्छे की है तलब उसे मुझ से अच्छे की चाह है
कभी सामने से जो वो जाए है कभी फेर मुँह को दिखाए है
मुझे दर्द-ए-रश्क सताए है कि यही वो ग़ैरत-ए-माह है
थी निगाह पहले तो उस की वूँ कहीं दोस्ती में हुआ है यूँ
दिया उस ने दिल कहीं और क्यूँ यही 'मुसहफ़ी' का गुनाह है
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