मेरी सी तू ने गुल से न गर ऐ सबा कही
मेरी सी तू ने गुल से न गर ऐ सबा कही
मैं भी लगा दूँ आग गुलिस्ताँ को तू सही
गो सुब्ह दूर है शब-ए-हिज्राँ की लेक तू
अपनी तरफ़ से तू न कर ऐ नाला-गो तही
ज़ालिम फिरा मिज़ाज न तेरा ग़ुरूर से
इंसाफ़ कर तू मैं तिरी क्या क्या जफ़ा सही
लतमों से बहर-ए-हुस्न के है ज़ुल्फ़ का ये रंग
लहरों में जैसे फिरती हो नागिन बही बही
अल्लाह-रे रोब-ए-हुस्न कि उस बुत के सामने
आई जो बात दिल से ज़बाँ पर वहीं रही
हम उस फ़रीक़ में नहीं वो और लोग हैं
दुनिया के नेक-ओ-बद से जो रखते हैं आगही
सद-आफ़रीं कि बहर में 'सौदा' की 'मुसहफ़ी'
इक तू ने आब-दार ग़ज़ल और भी कही
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