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लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं - मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी कविता - Darsaal

लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं

लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं

हम लोग वहशी ख़ब्ती दीवाने बावले हैं

ये सेहर क्या किया है बालों की दरहमी ने

जो उस परी पर अपने बेगाने बावले हैं

जी झोंकता है कोई आतिश में नाहक़ अपना

जलते हैं शम्अ' पर जो परवाने बावले हैं

इस्मत का अपनी उस को जब आफी ग़म न होवे

लगते हैं हम जो नाहक़ ग़म खाने बावले हैं

उस मय का एक क़तरा सूराख़-ए-दिल करे है

भर भर जो हम पिएँ हैं पैमाने बावले हैं

गर्दिश से पुतलियों की सर-गश्ता है ज़माना

मस्ती से उस निगह की मय-ख़ाने बावले हैं

जाते हैं उस गली में लड़कों को साथ ले कर

म्याँ 'मुसहफ़ी' भी यारो क्या स्याने बावले हैं

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In Hindi By Famous Poet Mushafi Ghulam Hamdani. is written by Mushafi Ghulam Hamdani. Complete Poem in Hindi by Mushafi Ghulam Hamdani. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.