क्या दख़्ल किसी से मरज़-ए-इश्क़ शिफ़ा हो
क्या दख़्ल किसी से मरज़-ए-इश्क़ शिफ़ा हो
मुमकिन है कि इस दर्द की दुनिया में दवा हो
बालों का घुरस रखना है पगड़ी ही में बेहतर
क्या फ़ाएदा इक ख़ल्क़ गिरफ़्तार-ए-बला हो
मग़रूर न रह हस्ती-ए-मौहूम पे ग़ाफ़िल
याँ आँख झपकते ही ख़ुदा जानिए क्या हो
ऐ मुश्त-ए-ग़ुबार-ए-तन-ए-फ़र्सूदा-ए-आशिक़
उस कू में ज़मीं-गीर है गीव अब तू हवा हो
गर चर्ख़ पे जावे तो शफ़क़ होवे मिरा ख़ूँ
वर ख़ाक में पिन्हाँ हो तो वाँ रंग-ए-हिना हो
है सुब्ह से कुछ आज मिरे दिल को बशाशत
उस कूचे से क़ासिद तो न ख़त ले के चला हो
क्या दौर है गर रूह मिरी ब'अद-ए-फ़ना भी
फिरती रहे कूचे में तिरे बाद-ए-सबा हो
पर्दा मैं उठाता नहीं ज़िन्हार किसी का
इस डर से कहीं तू ही न पर्दे में छुपा हो
है आईने में अक्स तिरा तेरी ही सूरत
तू उस पे फ़िदा और वो तेरे पे फ़िदा हो
चलते ही तिरे बाम पे आया है वो काफ़िर
क्यूँ इतने क़दम जल्द उठाता है खड़ा हो
ऐ 'मुसहफ़ी' उस कूचे से तू सर को झुकाए
क्या जावे है कम-बख़्त ज़रा रू-ब-कफ़ा हो
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