कीजिए ज़ुल्म सज़ा-वार-ए-जफ़ा हम ही हैं
कीजिए ज़ुल्म सज़ा-वार-ए-जफ़ा हम ही हैं
खींचिए तेग़ कि मुद्दत से फ़िदा हम ही हैं
तफ़्ता-दिल सोख़्ता-जाँ चाक-जिगर ख़ाक-बसर
क्या कहें मसदर-ए-सद-गूना-बला हम ही हैं
नहीं मौक़ूफ़ दुआ अपनी तो कुछ ब'अद-ए-नमाज़
बैठते उठते जो माँगें हैं दुआ हम ही हैं
ये भी कोई तूर से टुक जल्वा दिखा छुप जाना
और भी लोग हैं तरसाने को क्या हम ही हैं
वो जो कहलाते थे ज़ीं-पेश तिरे यारों में
जान-ए-मन अब तो हमें भूल गया हम ही हैं
न बरहमन की मशीख़त है न रुहबान की क़द्र
अब तो इस मय-कदे में नाम-ए-ख़ुदा हम ही हैं
इश्वा-ओ-नाज़ तिरा हम से यही कहता है
नहीं करते जो कभी तीर ख़ता हम ही हैं
बे-नवाओं की तरह आ के तिरे कूचे में
वो जो कर जाते हैं इक रोज़ सदा हम ही हैं
आधी रात आए तिरे पास ये किस का है जिगर
चौंक मत इतना कि ऐ होश-रुबा हम ही हैं
'मुसहफ़ी' टल गए सब मारका-ए-इश्क़ के बीच
वो जो ठहरे रहे हैं एक ज़रा हम ही हैं
(345) Peoples Rate This