ख़ुदा की क़सम फिर तो क्या ख़ैर होवे
ख़ुदा की क़सम फिर तो क्या ख़ैर होवे
हम और तुम अकेले हों और सैर होवे
करें ग़ैर का शिकवा किस तौर फिर हम
न अपने सिवा जब कोई ग़ैर होवे
ज़ियारत करें दिल में काबे की अपने
जो मुझ सा कोई साकिन-ए-दैर होवे
मिले ऐसे ज़रदार से किस की जूती
न तय्यार जिस से तिरा पैर होवे
अगर ख़ामुशी को मैं गोयाई लिक्खूँ
तो दीवाँ मिरा मंतिक़ुत्तैर होवे
हुआ ख़स्म-ए-जाँ 'मुसहफ़ी' वो तो तेरा
न इंसाँ को इंसान से बैर होवे
(338) Peoples Rate This