कहीं मग़्ज़ उस के मैं सुब्ह-दम तिरी बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-रसा गई
कहीं मग़्ज़ उस के मैं सुब्ह-दम तिरी बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-रसा गई
तिरे कूचे से जो चमन तलक गुल उड़ाती ख़ाक-ए-सबा गई
मरज़ इक जहाँ से निराला था मिरी जान तेरे मरीज़ का
न हुआ किसी से इलाज जब अजल उस की करने दवा गई
ग़रज़ इस निबाह के सदक़े में ग़रज़ ऐसी चाह के सदक़े में
न तिरा ही जौर-ओ-जफ़ा गया न मिरी ही मेहर-ओ-वफ़ा गई
ये बहार होवेगी सब ख़िज़ाँ न समन न लाला न अर्ग़वाँ
दम-ए-गर्म की मिरे दोस्ताँ कभू बाग़ में जो हवा गई
जो फ़िदा-ए-सूरत-ए-ख़ूब हैं उन्हें तब कहूँगा कि देखिए
कोई शक्ल अपनी ही चश्म में कभू सैर करती जो आ गई
मैं हुआ ब-ख़ाक-ए-सियह-फ़रो तिरे कूचे में ब-सद-आरज़ू
रहा शर्मगीं ही हमेशा तू तिरी अब तलक न हया गई
सर उठाऊँ क्यूँके मैं 'मुसहफ़ी' नहीं मुझ में ताब-ओ-तवाँ ज़री
कि ख़िराम उस बुत-ए-शोख़ की मुझे ख़ाक ही में मिला गई
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