कभू तक के दर को खड़े रहे कभू आह भर के चले गए
कभू तक के दर को खड़े रहे कभू आह भर के चले गए
तिरे कूचे में जो हम आए भी तो ठहर ठहर के चले गए
गए बाग़ में किसी गुल तले तो वहाँ भी अपना न जी लगा
ले ब-रंग-ए-ग़ुंचा जमाइयाँ तुझे याद कर के चले गए
कहीं ग़श में था मैं पड़ा हुआ सुनो और क़हर की बात तुम
मुझे देखने को जो आए वो तो बिगड़ सँवर के चले गए
करूँ मू ओ ज़ुल्फ़ का क्या बयाँ कि अजीब क़िस्सा है दरमियाँ
ये इधर को सीने पे आ रही वो उधर कमर के चले गए
अब अनीस है न जलीस है न रफ़ीक़ है न शफ़ीक़ है
हम अकेले घर में पड़े रहे सभी लोग घर के चले गए
ये अजब ज़माने की रस्म है कि जिन्हों पे मरते थे हम सदा
पस-ए-मर्ग आ वही ख़ाक में हमें आह धर के चले गए
चढ़े कोठे पर तो थे 'मुसहफ़ी' प न दाव पर वो मिरे चढ़े
मैं चढ़ाऊँ जब तलक आस्तीं उठे और उतर के चले गए
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