जीता रहूँ कि हिज्र में मर जाऊँ क्या करूँ
जीता रहूँ कि हिज्र में मर जाऊँ क्या करूँ
तू ही बता मुझे मैं किधर जाऊँ क्या करूँ
है इज़्तिराब-ए-दिल से निपट अर्सा मुझ पे तंग
आज उस तलक ब-दीदा-ए-तर जाऊँ क्या करूँ
हैरान हूँ कि क्यूँके ये क़िस्सा चुके मिरा
सर रख के तेग़ ही पे गुज़र जाऊँ क्या करूँ
बतला दे तू ही वा-शुद-ए-दिल का मुझे इलाज
गुलशन में ऐ नसीम-ए-सहर जाऊँ क्या करूँ
बैठा रहूँ कहाँ तलक उस दर पे 'मुसहफ़ी'
अब आई शाम होने को घर जाऊँ क्या करूँ
(335) Peoples Rate This