जी से मुझे चाह है किसी की
जी से मुझे चाह है किसी की
क्या जाने कोई किसी की जी की
शाहिद रहियो तू ऐ शब-ए-हिज्र
झपकी नहीं आँख 'मुसहफ़ी' की
रोने पे मिरे जो तुम हँसो हो
ये कौन सी बात है हँसी की
जूँ जूँ कि बनाव पर वो आया
दूनी हुई चाह आरसी की
गो अब वो जवाँ नहीं प हम से
लत जाए है कोई आशिक़ी की
चाहे तो शफ़क़ को फूँक देवे
सुर्ख़ी तिरे रंग-ए-आतिशी की
मैं वादी-ए-इश्क़ में जो आया
मजनूँ ने मिरी न हम-सरी की
खाते नहीं अब तिरे नुसैरी
सौगंद भी मुर्तज़ा-अली की
क्या रेख़्ता कम है 'मुसहफ़ी' का
बू आती है इस में फ़ारसी की
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