जब से साने ने बनाया है जहाँ का बहरूप
जब से साने ने बनाया है जहाँ का बहरूप
अपनी नज़रों में है सब कौन-ओ-मकाँ का बहरूप
मैं गया भेस बदल कर तो लगा यूँ कहने
चल बे लाया है मिरे आगे कहाँ का बहरूप
चाँद तारे हैं ये कैसे ये शब ओ रोज़ है क्या
कुछ समझ में नहीं आता है यहाँ का बहरूप
चश्म-ए-बीना हों तो दाढ़ी की दो-रंगी समझें
एक चेहरे पे है ये पीर ओ जवाँ का बहरूप
पहने जाते हैं कई रंग के कपड़े दिन में
क्या कहूँ हाए ग़ज़ब है ये बुताँ का बहरूप
बाग़ में तुर्रा-ए-सुम्बुल की परेशानी से
साफ़ निकला तिरे शोरीदा-सराँ का बहरूप
'मुसहफ़ी' साँग से क्या उखड़े है पश्म उस की भला
सौ तरह से हो जिसे याद ज़बाँ का बहरूप
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