जब घर से वो बाद-ए-माह निकले
जब घर से वो बाद-ए-माह निकले
मुँह से मिरे क्यूँ न आह निकले
दिल वो है कि जिस से चाह निकले
मुँह वो है कि जिस से आह निकले
ज़िंदाँ की तो अपने सैर तू कर
शायद कोई बे-गुनाह निकले
'मानी' से खिंची न ख़त की तस्वीर
लाखों वरक़ सियाह निकले
ख़जलत ये हुई कि महकमे से
शर्मिंदा मिरे गवाह निकले
रस्ते मसदूद हो गए हैं
अब देखिए क्यूँके राह निकले
पलकें नहीं छोड़तीं कि इक दम
आँखों से तिरी निगाह निकले
ऐ आह तू ले तो चल अलम को
ता आँसुओं की सिपाह निकले
निकला मैं गली से उस की इस तरह
जैसे कोई दाद-ख़्वाह निकले
वो सोख़्ता मैं नहीं कि जिस की
तुर्बत से गिल ओ गयाह निकले
शेर अपने जो 'मुसहफ़ी' पढ़ूँ मैं
मुँह से तिरे वाह वाह निकले
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