इन आँखों से आब कुछ न निकला
इन आँखों से आब कुछ न निकला
ग़ैर-अज़ ख़ूँ-नाब कुछ न निकला
बोसे का क्या सवाल लेकिन
उस मुँह से जवाब कुछ न निकला
बाहम हुई यूँ तो दीद-वा-दीद
पर दिल का हिजाब कुछ न निकला
जुज़ तेरी हवा के अपने सर में
मानिंद-ए-हबाब कुछ न निकला
करता था बहुत सा मुझ पे दा'वा
पर वक़्त-ए-हिसाब कुछ न निकला
सीने में जो दिल की की तफ़ह्हुस
जुज़ दूद-ए-कबाब कुछ न निकला
हम समझते थे जिस को 'मुसहफ़ी' यार
वो ख़ाना-ख़राब कुछ न निकला
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