इधर से झाँकते हैं गह उधर से देख लेते हैं
इधर से झाँकते हैं गह उधर से देख लेते हैं
ग़रज़ हम उस की सूरत सौ हुनर से देख लेते हैं
किया है बख़्त ने जिस दिन से हम को उस का हम-साया
हम उस रश्क-ए-परी को अपने घर से देख लेते हैं
जो हो जाते हैं दीवाने तिरे इतने नक़ाबों पर
ख़ुदा जाने कि वो तुझ को किधर से देख लेते हैं
हमें गिर्या से वो फ़ुर्सत कहाँ जो ख़ाल-ओ-ख़त देखें
मगर नक़्शा तिरा इस चश्म-ए-तर से देख लेते हैं
हमारे देखने से क्यूँ ख़फ़ा होता है ऐ ज़ालिम
तिरा लेते हैं क्या टुक इक नज़र से देख लेते हैं
हमें उस कू में रहने का नहीं कुछ और तो हासिल
पर इतना है कि गाहे चाक-ए-दर से देख लेते हैं
लगें हैं देखने जब 'मुसहफ़ी' हम उस के कूचे में
टुक इक फिर कर भी रुस्वाई के डर से देख लेते हैं
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