हर-चंद कि बात अपनी कब लुत्फ़ से ख़ाली है
हर-चंद कि बात अपनी कब लुत्फ़ से ख़ाली है
पर यार न समझें तो ये बात निराली है
आग़ोश में है वो और पहलू मिरा ख़ाली है
माशूक़ मिरा गोया तस्वीर-ए-ख़याली है
क्या डर है अगर उस ने दर से मुझे उठवाया
कहते हैं तग़य्युरी में आशिक़ की बहाली है
बालीं पे जब आया है बीमार की तू अपने
तब रूह के क़ाबिज़ ने जान उस की निकाली है
मैं हाल बयाँ अपना करता हूँ ग़ज़ल कह के
इस वास्ते अब मेरा जो शेर है हाली है
मेहंदी के लगाने में फुरती ये नहीं देखी
ज़ालिम ने हथेली पर सरसों सी जमा ली है
हर-चंद कि परवाना जल जाने में है आँधी
पर शम्अ भी आतिश में जी झोंकने वाली है
मानी ने शबीह उस की क्या सोच के खींची थी
मू-ए-कमर उस के की तस्वीर ख़याली है
ज़ाहिर है कि जागे हो तुम रात कहीं रह कर
आँखों में नशे की तो कुछ थोड़ी सी लाली है
मक़्दूर मगर कब था क़ुर्बान हैं हम उस के
दामन की तिरे जिस ने ये झोंक संभाली है
ऐ 'मुसहफ़ी' है तेरा इतना जो सुख़न चस्पाँ
क्या तू ने जवाँ दरज़न घर में कोई डाली है
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