हर दम आते हैं भरे दीदा-ए-गिर्यां तुझ बिन
हर दम आते हैं भरे दीदा-ए-गिर्यां तुझ बिन
मुझ को ये डर है कि लाएँ न ये तूफ़ाँ तुझ बिन
लाला-ओ-गुल की तरफ़ किस की बला देखे है
जी को भाती ही नहीं सैर-ए-गुलिस्ताँ तुझ बिन
आ गया बस-कि ख़लल मज़हब-ओ-मिल्लत में मिरी
न रहा गब्र में प्यारे न मुसलमाँ तुझ बिन
दिल गया दीन गया सब्र गया ताब गई
यूँ ही अपने तो हुए सैकड़ों नुक़साँ तुझ बिन
न खिले ग़ुंचा-ए-तस्वीर के मानिंद कभू
लब-ए-ख़ामोश मिरे ऐ गुल-ए-ख़ंदाँ तुझ बिन
जब से ऐ गुल तू गया बिस्तर-ए-आशिक़ पे तिरे
गुल-ए-बालीं न हुए सुम्बुल-ओ-रैहाँ तुझ बिन
सामने से मिरी आँखों के न जा मान कहा
किस को देखूँगा मैं फिर ऐ मह-ए-ताबाँ तुझ बिन
रोज़ दुश्मन का भी इस तरह न कटियो या-रब
मैं ने जिस ज़ुल्म से काटी शब-ए-हिज्राँ तुझ बिन
मह-ए-नौ शाम के होते ही तसव्वुर में तिरे
था खड़ा सर पे लिए ख़ंजर-ए-उर्यां तुझ बिन
और जो जाती थी कभी ख़ोशा-ए-पर्वीं पे निगाह
वो भी लगता था सनम दस्ता-ए-पैकाँ तुझ बिन
'मुसहफ़ी' जा के गुलिस्ताँ में करे क्या प्यारे
कि गुलिस्ताँ है उसे ख़ाना-ए-ज़िंदाँ तुझ बिन
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