है तमन्ना-ए-सैर-ए-बाग़ किसे
है तमन्ना-ए-सैर-ए-बाग़ किसे
गुल से साज़िश करे दिमाग़ किसे
किस का आलम कहाँ के बाग़ ओ बहार
अपने आलम से है फ़राग़ किसे
उस के आवार्गां को ढूँडे है ख़ल्क़
उन का मिलता है याँ सुराग़ किसे
इतना बे-सुध नहीं मैं ऐ साक़ी
ख़ाली देता है तू अयाग़ किसे
तुझ बिन ऐ वहशत-ए-जुनून-ए-बहार
ख़ुश लगे है ये बाग़ ओ राग़ किसे
लाला देख उस की छब को कहता था
दाग़ पर दे गया है दाग़ किसे
गो अँधेरी है 'मुसहफ़ी' शब-ए-हिज्र
पर हुई ख़्वाहिश-ए-चराग़ किसे
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