ग़ज़ल कहने का किस को ढब रहा है
ग़ज़ल कहने का किस को ढब रहा है
वो रुत्बा इश्क़ का अब कब रहा है
बशाशत बर्ग-ए-गुल में है जो इतनी
किसी के लब पर उस का लब रहा है
मुशव्वश शक्ल से उस गुल की ज़ाहिर
ये होता है कहीं वो शब रहा है
परस्तिश ही में शब आख़िर हुई है
हमारे पास वो बुत जब रहा है
तुम्हारे अहद में ऐ काफ़िरो हाए
कहाँ वो मिल्लत ओ मज़हब रहा है
मिरा ज़ानू तिरे ज़ानू के नीचे
उठूँ क्यूँ-कर कि काफ़िर दब रहा है
इसे कब नाज़-ए-बुस्ताँ की हवस है
ये दिल नित कुश्ता-ए-ग़बग़ब रहा है
मु-ए-जुज़ 'मीर' जो थे फ़न के उस्ताद
यही इक रेख़्ता-गो अब रहा है
नित उस की 'मुसहफ़ी' खाता हूँ दुश्नाम
यही तो मेरा अब मंसब रहा है
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