घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
और जो हम-साए हैं आवाज़ में मर जाते हैं
कब्क ओ ताऊस को चलता है तू ठहरा के तो हम
तेरी रफ़्तार के अंदाज़ में मर जाते हैं
मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी
यक-ब-यक मौसम-ए-परवाज़ में मर जाते हैं
हैं तिरे रम्ज़-ए-तबस्सुम के अदा-फ़हम जो शख़्स
जुम्बिश-ए-लाल-ए-फ़ुसूँ-साज़ में मर जाते हैं
लब हिलाने नहीं पाता वो कि हम नादीदा
बस वहीं बात के आग़ाज़ में मर जाते हैं
तौसन-ए-नाज़ को फेंके है वो जिस दम सरपट
लोग क्या क्या न तग-ओ-ताज़ में मर जाते हैं
'मुसहफ़ी' दश्त-ए-बला का सफ़र आसान है क्या
सैकड़ों बसरा ओ शीराज़ में मर जाते हैं
(305) Peoples Rate This