ग़म तिरा दिल में मिरे फिर आग सुलगाने लगा
ग़म तिरा दिल में मिरे फिर आग सुलगाने लगा
फिर धुआँ सा उस से कुछ उठता नज़र आने लगा
इश्क़ के सदमे उठाए थे बहुत पर क्या करें
अब तो उन सदमों से कुछ जी अपना घबराने लगा
मैं ही कुछ बे-सब्र-ओ-ताक़त इश्क़ में उस के नहीं
दिल भी अब बे-ताक़ती से काम फ़रमाने लगा
देखते ही उस के कुछ इस की ये हालत हो गई
जो मुझे समझाए था मैं उस को समझाने लगा
रक़्स में उस के संजाफ़-ए-सुर्ख़ के आलम को देख
शोला-ए-जव्वाला दामन से लिपट जाने लगा
हो चुकी फ़स्ल-ए-गिरेबाँ-चाकी अब दस्त-ए-जुनूँ
धज्जियाँ कर के मुझे दामन की दिखलाने लगा
मुँह से निकला था मिरे इतना ही क्या अच्छी है ज़ुल्फ़
सुनते ही इस बात के कुछ वो तो बल खाने लगा
क्यूँ न फाड़ूँ मैं गिरेबाँ मेरे होते बज़्म में
ग़ैर से बंद-ए-क़बा वो अपने खुलवाने लगा
'मुसहफ़ी' मैं तो न लिखता था वले शौक़-ए-फ़ुज़ूल
इस ज़मीं में फिर ग़ज़ल इक मुझ से लिखवाने लगा
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