दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
पछताए हम इस शाम-ए-ग़रीबाँ से निकल कर
ये उस से ज़ियाँ-कार तो वो इस से बद आएँ
जाऊँ मैं कहाँ गब्र ओ मुसलमाँ से निकल कर
उस्ताद कोई ज़ोर मिला क़ैस को शायद
ली राह जो जंगल की दबिस्ताँ से निकल कर
मालूम नहीं मुझ को कि जावेगा किधर को
यूँ सीना तिरा चाक-ए-गरेबाँ से निकल कर
गुज़रा रग-ए-गर्दन से कि जूँ शम्अ सर अपना
तलवार ही खाता है गरेबाँ से निकल कर
ना-ज़ोरी में आया न कभू ता-सर-ए-मिज़्गाँ
यक क़तरा-ए-ख़ूँ भी बुन-ए-मिज़्गाँ से निकल कर
तीरों में कमाँ-दार मिरा घेर ले जिस को
वो जाने न पावे कभी मैदाँ से निकल कर
हम आप फ़ना हो गए ऐ हस्ती-ए-मौहूम
जूँ मौज-ए-तबस्सुम लब-ए-जानाँ से निकल कर
सूरत के तिरी सामने रह जाए है कैसे
हर बुत की निगह दीदा-ए-हैराँ से निकल कर
उस दस्त-ए-हिनाई में रहा आईना अक्सर
दरिया न गया पंजा-ए-मर्जां से निकल कर
अब पढ़ वो ग़ज़ल 'मुसहफ़ी' तू शुस्ता ओ रफ़्ता
सुनने जिसे ख़ल्क़ आए सफ़ाहाँ से निकल कर
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