बुलबुलो बाग़बाँ को क्यूँ छेड़ा
बुलबुलो बाग़बाँ को क्यूँ छेड़ा
तुम ने साज़-ए-फ़ुग़ाँ को क्यूँ छेड़ा
मुझ को उस तुर्क से ये शिकवा है
दिल पे रख कर सिनाँ को क्यूँ छेड़ा
न बुला लाए मुझ सा दीवाना
संगसार-ए-जहाँ को क्यूँ छेड़ा
ऐ हुमा! और खाने थे मुर्दे
मेरे ही उस्तुखाँ को क्यूँ छेड़ा
बहला नादिम हो जी में कहता है
मैं ने इस मोमियाँ को क्यूँ छेड़ा
फिर गया मुझ से जो मिज़ाज उस का
गर्दिश-ए-आसमाँ को क्यूँ छेड़ा
दूर से उस ने मेरी सूरत देख
तोसन-ए-ख़ुश-इनाँ को क्यूँ छेड़ा
दास्ताँ अपनी मुझ को कहनी थी
क़िस्सा-ए-ईन-ओ-आँ को क्यूँ छेड़ा
क़िस्सा-ख़्वाँ और लाख क़िस्से थे
तू ने ज़िक्र-ए-बुताँ को क्यूँ छेड़ा
जिस से कल मुझ को आ गई थी ग़शी
फिर उसी दास्ताँ को क्यूँ छेड़ा
'मुसहफ़ी' घर के घर जला देगा
ऐसे आतिश-ज़बाँ को क्यूँ छेड़ा
(323) Peoples Rate This