बे-लाग हैं हम हम को रुकावट नहीं आती
बे-लाग हैं हम हम को रुकावट नहीं आती
क्या बात बनावें कि बनावट नहीं आती
है ध्यान लगा दर की तरफ़ पर कई दिन से
कानों में तिरे पाँव की आहट नहीं आती
दंदान-ए-हवस से उसे मसला है किसू ने
बोसे से तो लब पर ये निलाहट नहीं आती
काजल ने तिरी आँखों में जो लुत्फ़ दिया है
हर एक के हिस्से ये घुलावट नहीं आती
क्या जामा-ए-चस्पाँ का तिरे वस्फ़ करूँ मैं
तक़रीर में कुछ उस की सजावट नहीं आती
है रंग सियाही लिए जूँ उस की हिना का
हाथों पे हर इक के ये उदाहट नहीं आती
ऐ 'मुसहफ़ी' बैठे हैं हम उस बज़्म में ख़ामोश
क्या बात बनावें कि बनावट नहीं आती
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