बचा गर नाज़ से तो उस को फिर अंदाज़ से मारा
बचा गर नाज़ से तो उस को फिर अंदाज़ से मारा
कोई अंदाज़ से मारा तो कोई नाज़ से मारा
किसी को गर्मी-ए-तक़रीर से अपनी लगा रक्खा
किसी को मुँह छुपा कर नर्मी-ए-आवाज़ से मारा
हमारा मुर्ग़-ए-दिल छोड़ा न आख़िर उस शिकारी ने
गहे शाहीन फेंके उस पे गाहे बाज़ से मारा
ग़ज़ल पढ़ते ही मेरी ये मुग़न्नी की हुई हालत
कि उस ने साज़ मारा सर से और सर साज़ से मारा
निकाली रस्म-ए-तेग़-ओ-तश्त दिली में जज़ाक-अल्लाह
कि मारा तो हमें तू ने पर इक एज़ाज़ से मारा
न उड़ता मुर्ग़-ए-दिल तो चंगुल-ए-शाहीं में क्यूँ फँसता
गया ये ख़स्ता अपनी ख़ूबी-ए-परवाज़ से मारा
जहाँ तक साज़-दारी है लिखी दुश्मन के ताले में
हमें बदनाम कर के ताले-ए-ना-साज़ से मारा
हज़ारों रंग उस के ख़ून ने यारों को दिखलाए
जब उस ने 'मुसहफ़ी' को अपनी तेग़-ए-नाज़ से मारा
(309) Peoples Rate This