मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी (page 17)
नाम | मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी |
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अंग्रेज़ी नाम | Mushafi Ghulam Hamdani |
जन्म की तारीख | 1751 |
मौत की तिथि | 1824 |
जन्म स्थान | Amroha |
दामन-कशाँ वो जाए था सैर-ए-चमन को और
डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में
दैर ओ हरम ब-चशम-ए-हक़ीक़त नहीं जुदा
दाग़-ए-पेशानी-ए-ज़ाहिद न गया जीते-जी
दाग़-ए-दिल शब को जो बनता है चराग़-ए-दहलीज़
दफ़ीना घर में क्या था और तो हम बादा-नोशों के
चीन-ए-पेशानी न दिखलाओ मैं हूँ नाज़ुक-मिज़ाज
छुआ हो अगर मैं ने काकुल को तेरी
छोड़ा न एक लहज़ा तिरी ज़ुल्फ़ ने ख़याल
छेड़े है उस को ग़ैर तो कहता है उस से यूँ
छेड़ मत हर दम न आईना दिखा
चेहरे पे एक के भी न पाया वफ़ा का रंग
चश्म-ए-लैला का जो आलम है उन्हों की चश्म में
चराग़-ए-हुस्न-ए-यूसुफ़ जब हो रौशन
चमन को आग लगावे है बाग़बाँ हर रोज़
चली भी जा जरस-ए-ग़ुंचा की सदा पे नसीम
चाहूँगा मैं तुम को जो मुझे चाहोगे तुम भी
चाहता हूँ उस को मैं वो चाहता मुझ को नहीं
चाक करता है अभी जामा-ए-उर्यानी को
बिन ख़ूँ से लिक्खे कोई होता है नामा रंगीं
बीमार दिल जुदा है इधर मैं उधर जुदा
भूल जावे साहिब-ए-इक़बाल अपनी सर-कशी
बे-मुरव्वत तुझे आज़ुर्दा करेंगे हम लोग
बाज़ार से गुज़रे है वो बे-पर्दा कि उस को
बस-कि तेज़ाब से कुछ कम भी न था वो दम-ए-क़त्ल
बस-कि हों मिल्लत-ओ-मज़हब से जहाँ के आज़ाद
बस तू ने अपने मुँह से जो पर्दा उठा दिया
बस बहुत ज़ब्त-ए-ग़म-ए-इश्क़ किया
बारा-वफ़ातें बीसवीं झड़ियाँ हैं सौ जगह
बैठा था आ के क़ैस तो लैला के दर पे लेक