मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी (page 13)
नाम | मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी |
---|---|
अंग्रेज़ी नाम | Mushafi Ghulam Hamdani |
जन्म की तारीख | 1751 |
मौत की तिथि | 1824 |
जन्म स्थान | Amroha |
जानिब-ए-कअबा तू क्यूँ ले गया बुत-ख़ाने से
जाँ-बर हो किस तरह तप-ए-सौदा से 'मुसहफ़ी'
जान को जैसे निकाले है कोई क़ालिब से
जान जानी है मिरी ऐ बुत-ए-कम-सिन तुझ पर
जा जो इक दिन मिल गई पहलू में शोख़ी देखियो
इतनी तो मुझ को सैर-ए-चमन की हवस न थी
इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
इतने महकूम-ए-बुताँ हैं जो ये काफ़िर चाहें
इतना जो हम से रहते हो बेगाना मेरी जान
इतना गया हूँ दूर मैं ख़ुद से कि दम-ब-दम
इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
इसी सबब तो परेशाँ रहा मैं दुनिया में
इश्क़-ए-फ़ुज़ूँ में मेरे न हो दोस्तो कमी
इस वास्ते फ़ुर्क़त में जीता मुझे रक्खा है
इस तरफ़ भी कभी आना कि असीरान-ए-क़फ़स
इस रंग से अपने घर न जाना
इस नौ-बहार में तो तरह गुल के ऐ नसीम
इस इमारत पर न कर मुनइम ग़ुरूर
इस हवा में कर रहे हैं हम तिरा ही इंतिज़ार
इन दिनों शहर से जी सख़्त ब-तंग आया है
ईद तू आ के मिरे जी को जलावे अफ़्सोस
ईद अब के भी गई यूँही किसी ने न कहा
हूँ मुशव्वश मुझे इस दम न लगा हाथ सबा
हम से वो बे-सबब उलझती है
हम से पाई नहीं जाती कमर उस की ऐ ज़ुल्फ़
हम ने भेजा तो है उस गुल को ज़बानी पैग़ाम
हम सुबुक-रूह असीरों के लिए लाज़िम है
हम सनम दम तिरे इश्क़ का भर गए
हम न शाना न सबा हैं नहीं खुलता है ये भेद
हम 'मुसहफ़ी' ब-कुफ़्र तो मशहूर हो चुके