वक़्त
वो चलता रहा
इस कुर्रा-ए-अर्ज़ की गेंद पर
एक पाँव रक्खे
दूसरा पाँव इस का ख़ला में...
गेंद आगे बढ़ाते हुए
तवाज़ुन भी क़ाएम रहे...
क़यामत को टाले हुए...
वो चलता रहा
ज़ीस्त और मौत के दाएरे खींचता...
एक ही सम्त में
एक रफ़्तार से
किसी बाज़ीगर
एक सर्कस के नट की तरह
चाँद सूरज सितारों के गोले
कभी दोनों हाथों से उन को उछाले
कभी अपने शानों पे...
सर पर सँभाले हुए
कभी गूँज में तालियों की
बे-नियाज़ाना चलता हो
हाथ पतलून की...
दोनों जेबों में डाले हुए...
(414) Peoples Rate This