तिफ़्ल-ए-आरज़ू
एक मुजव्वफ़ अदसे से
मैं दुनिया को देख रहा था
जंगल मैदाँ रेत के टीले
सक़्ल-ए-ज़मीं से अपना रिश्ता तोड़ रहे थे
दूर किनारे दरिया के
साथ पुराना छोड़ रहे थे
बहती हवाओं के दामन को
गिरते पर्बत थाम रहे थे
और उन सब के पीछे
मेरी आँखें फैल गई थीं
मेरी नाक बहुत लम्बी थी
वो बोली पहचानो
आहिस्ता से पीछे आ कर किस ने आँखें मूँदें
अदसा फेंक के मैं ने उस के दस्त-ए-हिनाई थाम लिए
और उस की आग़ोश में छुप कर
जाने कब तक रोया
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