हम थे किसी का ध्यान था वो भी नहीं रहा
हम थे किसी का ध्यान था वो भी नहीं रहा
इक रब्त-ए-जिस्म-ओ-जान था वो भी नहीं रहा
झगड़ा था मेरा जिस से वो दुनिया किधर गई
इक शख़्स दरमियान था वो भी नहीं रहा
मिस्ल-ए-चराग़ तीरगी-ए-जिस्म-ओ-जाँ में दिल
इक शहर-ए-बे-निशान था वो भी नहीं रहा
ईंटें बिछी थीं जिस में वो इक तंग सी गली
उस में मिरा मकान था वो भी नहीं रहा
दुनिया मिरी नहीं न सही तुम तो साथ हो
क्या क्या हमें गुमान था वो भी नहीं रहा
नुक़्ता बनी निगाह से ओझल हुई ज़मीं
सर पर इक आसमान था वो भी नहीं रहा
'मुसहफ़' तुम्हारा नाम यहीं था और उस पे हाँ
इक सुर्ख़ सा निशान था वो भी नहीं रहा
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