हिकायत-ए-दिल-ए-महज़ूँ न क़िस्सा-ए-मजनूँ
हिकायत-ए-दिल-ए-महज़ूँ न क़िस्सा-ए-मजनूँ
किसी की बात सुनूँ मैं न अपनी बात कहूँ
तो मैं वही हूँ जिसे वो अज़ीज़ रखता था
मैं ख़ुद को सोच तो लूँ आईने में देख तो लूँ
तो जिस लिबास में कल उस ने मुझ को देखा था
वही क़मीस पहन कर उधर से फिर गुज़रूँ
वो एक लम्हा अज़ल-ता-अबद वही लम्हा
वो मुझ से कुछ न कहे मैं भी उस से कुछ न कहूँ
वो भूल जाए मुझे उस को भूल जाऊँ मैं
चराग़-ए-जाँ उसे निस्याँ के ताक़ पर रख दूँ
(388) Peoples Rate This