जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
मैं तमाम लोगों से मिल चुका तिरी क़ुर्बतों की तलाश में
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उसी ने हिजरतें कुछ और भी बिताई थीं
जिसे मैं छू नहीं सकता दिखाई क्यूँ वो देता है
अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
हवा रह में दिए ताक़ों में मद्धम हो गए हैं
हर साँस में मिस्मार खंडर टूटते रहना
घिरा हूँ दो क़ातिलों की ज़द में वजूद मेरा न बच सकेगा
बिगड़ते बनते दाएरे सवाल सोचते रहे
सजनी की आँखों में छुप कर जब झाँका
जो गया यहाँ से इसी मकान में आएगा
तह-ब-तह दरिया के सब असरार तक वो ले गया
हमारी तहरीरें वारदातें बहुत ज़माने के बाद होंगी