जिसे मैं छू नहीं सकता दिखाई क्यूँ वो देता है
फ़रिश्तों जैसी बस मेरी इबादत देखते रहना
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अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
किया न तर्क-ए-मरासिम पे एहतिजाज उस ने
जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
फ़ैसला थे वक़्त का फिर बे-असर कैसे हुए
हुसैन ही था जो प्यासा उठा फ़ुरात से वो
देखो कोई ख़्वाब दिन ढले का
न सोचो तर्क-ए-तअल्लुक़ के मोड़ पर रुक कर
जो गया यहाँ से इसी मकान में आएगा
आँखें यूँ बरसीं पैराहन भीग गया
लहू-लुहान था शाख़-ए-गुलाब काट के वो
मैं आँधी में रेज़ा रेज़ा इक फूल चुन रहा हूँ
कनार-ए-आब हवा जब भी सनसनाती है