तुम इक ऐसे शख़्स को पहचानते हो या नहीं
तुम इक ऐसे शख़्स को पहचानते हो या नहीं
जिस का चेहरा बोलता है और लब गोया नहीं
सुब्ह को देखा तो दो घाव मिरे चेहरे पे थे
रात कुछ रोने की ख़्वाहिश थी मगर रोया नहीं
फैलता जाता है ख़ुद-रौ सब्ज़ा-ए-ग़म चार-सू
खेत वो काटूँगा जो मैं ने कभी बोया नहीं
ख़्वाब देखा था कोई बचपन की कच्ची नींद में
दोस्तो फिर चैन से मैं आज तक सोया नहीं
ज़ीनत-ए-मल्बूस-ए-हस्ती बढ़ गई जिस दाग़ से
ज़िंदगी भर मैं ने ऐसे दाग़ को धोया नहीं
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