इक याद थी किसी की जो बादल बनी रही
इक याद थी किसी की जो बादल बनी रही
सहरा-नसीब के लिए छाँव घनी रही
वो नक़्श हूँ जो बन के भी अब तक न बन सका
वो बात हूँ जो कह के भी नाग़ुफ़्तनी रही
पत्थर का बुत, समझ कि ये किस शय को छू लिया
बरसों तमाम जिस्म में इक सनसनी रही
इस जान-ए-गुल को देखते कैसे कि आज तक
इक रंग-ओ-बू की सामने चादर तनी रही
वो धुँद थी कि कुछ भी दिखाई न दे सका
वो हब्स था कि कैफ़ियत-ए-जांकनी रही
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