बदन में जाग उठी कपकपाहटें कैसी
बदन में जाग उठी कपकपाहटें कैसी
मैं सुन रहा हूँ ये फ़र्दा की आहटें कैसी
मकीं को याद हज़ीमत की दास्ताँ है मगर
तो उस के घर में हैं ये जगमगाहटे कैसी
शिकस्त-ए-दिल का जो एहसास अब भी ज़िंदा है
तो फिर ये होंटों पे हैं मुस्कुराहटें कैसी
वजूद टूट रहा हो तो कैसी नग़्मागरी
जो दिल सुकूँ से न हो गुनगुनाहटें कैसी
फ़राज़-ए-दार मुक़द्दर बने कि ज़हर का जाम
दयार शौक़ में अब हिचकिचाहटें कैसी
समझ के संग जिसे छू लिया बदन तो न था
रगों में दौड़ गईं सरसराहटें कैसी
क़ुबूल-ए-आम का मंसब जो मेरे फ़न को मिला
तो दोस्तों को हुईं तिलमिलाहटें कैसी
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