हमारी प्यास को इतना जगाया है मुक़द्दर ने
हमारी प्यास को इतना जगाया है मुक़द्दर ने
कि इक क़तरे को भी दरिया बनाया है मुक़द्दर ने
कभी तूफ़ाँ से टकराए कभी मौजों से लड़ बैठे
हमें हालात से लड़ना सिखाया है मुक़द्दर ने
हमारी चाहतों की शब भी गुज़री वक़्त से पहले
हमें इक ख़्वाब ऐसा भी दिखाया है मुक़द्दर ने
न कोई आरज़ू है अब न कोई जुस्तुजू मुझ को
मुझे क्यूँ ज़िंदगी से अब मिलाया है मुक़द्दर ने
जहाँ मंज़िल तो हासिल है मगर अपना नहीं कोई
मुझे क्यूँ ऐसे रस्तों पर चलाया है मुक़द्दर ने
रुलाया है सताया है जलाया है कि ऐ 'तालिब'
सितम का हर तरीक़ा आज़माया है मुक़द्दर ने
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