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न कोई मेहरबाँ अपना न कोई राज़-दाँ अपना - मुर्ली धर शाद कविता - Darsaal

न कोई मेहरबाँ अपना न कोई राज़-दाँ अपना

न कोई मेहरबाँ अपना न कोई राज़-दाँ अपना

जिसे समझे थे अपना दिल वो दिल भी अब कहाँ अपना

जो हो चश्म-ए-करम तेरी जो हो तू मेहरबाँ अपना

ज़मीं अपनी फ़लक अपना मकीं अपने मकाँ अपना

वो ले कर आइना बैठे थे लेने इम्तिहाँ अपना

किया हाथों से अपने दामन-ए-दिल धज्जियाँ अपना

भटकते फिर रहे हैं जुस्तुजू-ए-यार में अब तक

कहीं टिकने नहीं देता हमें वहम-ओ-गुमाँ अपना

जवानी में किसे नेकी बदी का होश होता है

जवानी में नहीं कुछ सूझता सूद-ओ-ज़ियाँ अपना

ज़माने ने वो करवट मिरी दुनिया बदल डाली

न अब है राज़-दाँ कोई न कोई मेहरबाँ अपना

किसी को याद हम आते नहीं इस अंजुमन में अब

ब-हम्दिल्लाह ज़िक्र-ए-ख़ैर रहता था जहाँ अपना

वो गुल हैं हम गुलिस्ताँ से उड़े यूँ बू-ए-गुल बन कर

न ढूँडे से मिला गुलचीं को फिर नाम-ओ-निशाँ अपना

मज़ा उस्ताद के शे'रों का हम को 'शाद' आता है

वो है तर्ज़-ए-सुख़न अपनी वो है रंग-ए-बयाँ अपना

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In Hindi By Famous Poet Murli Dhar Shad. is written by Murli Dhar Shad. Complete Poem in Hindi by Murli Dhar Shad. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.