न कोई मेहरबाँ अपना न कोई राज़-दाँ अपना
न कोई मेहरबाँ अपना न कोई राज़-दाँ अपना
जिसे समझे थे अपना दिल वो दिल भी अब कहाँ अपना
जो हो चश्म-ए-करम तेरी जो हो तू मेहरबाँ अपना
ज़मीं अपनी फ़लक अपना मकीं अपने मकाँ अपना
वो ले कर आइना बैठे थे लेने इम्तिहाँ अपना
किया हाथों से अपने दामन-ए-दिल धज्जियाँ अपना
भटकते फिर रहे हैं जुस्तुजू-ए-यार में अब तक
कहीं टिकने नहीं देता हमें वहम-ओ-गुमाँ अपना
जवानी में किसे नेकी बदी का होश होता है
जवानी में नहीं कुछ सूझता सूद-ओ-ज़ियाँ अपना
ज़माने ने वो करवट मिरी दुनिया बदल डाली
न अब है राज़-दाँ कोई न कोई मेहरबाँ अपना
किसी को याद हम आते नहीं इस अंजुमन में अब
ब-हम्दिल्लाह ज़िक्र-ए-ख़ैर रहता था जहाँ अपना
वो गुल हैं हम गुलिस्ताँ से उड़े यूँ बू-ए-गुल बन कर
न ढूँडे से मिला गुलचीं को फिर नाम-ओ-निशाँ अपना
मज़ा उस्ताद के शे'रों का हम को 'शाद' आता है
वो है तर्ज़-ए-सुख़न अपनी वो है रंग-ए-बयाँ अपना
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