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नहीं कुछ और तो मुमकिन थी ख़ुद-कुशी फिर भी - मुक़ीम एहसान कलीम कविता - Darsaal

नहीं कुछ और तो मुमकिन थी ख़ुद-कुशी फिर भी

नहीं कुछ और तो मुमकिन थी ख़ुद-कुशी फिर भी

है कोई बात कि जीता है आदमी फिर भी

ये तीरगी तो बस इक गर्दिश-ए-ज़मीं तक है

मगर ये रात जो हम से न कट सकी फिर भी

चमन लुटा है ख़ुद अहल-ए-चमन की साज़िश से

कली कली है मगर महव-ए-ख़्वाब सी फिर भी

किसी को पा के भी अक्सर गुमाँ ये होता है

कि जैसे रह गई बाक़ी कोई कमी फिर भी

हमीं पे यूरिश-ए-ज़ुल्मत हमीं हैं कुश्ता-ए-शब

हमीं हैं पेश-रव-ए-सुब्ह-ओ-रौशनी फिर भी

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In Hindi By Famous Poet Muqeem Ehsan Kaleem. is written by Muqeem Ehsan Kaleem. Complete Poem in Hindi by Muqeem Ehsan Kaleem. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.