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शाम - मुंशी ज्वाला प्रशाद बर्क़ कविता - Darsaal

शाम

सूरज डूबा हुआ अँधेरा

चिड़ियाँ लेने लगीं बसेरा

दिन का ग़ाएब हुआ उजाला

तारीकी ने पर्दा डाला

जलने लगे दिए घर घर में

गिरजा मस्जिद और मंदिर में

चर्ख़-ए-बरीं पर चमके तारे

बे-रोग़न हैं रौशन सारे

जंगल से घर आए ग्वाले

रेवड़ अपना अपना सँभाले

जा पहुँचे मज़दूर घरों में

ख़ुश ख़ुश हैं बीवी बच्चों में

दिन में कब आराम किया है

ख़ून पसीना एक किया है

नींद में ग़ाफ़िल हो गए बच्चे

सो गए लोरी सुनते सुनते

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