न लड़ाओ नज़र रक़ीबों से
काम अच्छा नहीं लड़ाई का
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ज़ीनत-ए-उनवाँ है मज़मूँ आलम-ए-तौहीद का
क़ातिल के कूचे में हमा-तन जाऊँ बन के पाँव
दिल तंग उस में रंज-ओ-अलम शोर-ओ-शर हों जम्अ'
आँख अपनी तिरी अबरू पे जमी रहती है
सुब्हा से मतलब न कुछ ज़ुन्नार से
ईजाद ग़म हुआ दिल-ए-मुज़्तर के वास्ते
शायद मिज़ाज हम से मुकद्दर है यार का
कहें क्या कि क्या क्या सितम देखते हैं
जो तेरे गुनह बख़्शेगा वाइ'ज़ वो मिरे भी
हुजूम-ए-रंज-ओ-ग़म-ओ-दर्द है मरूँ क्यूँकर
क़श्क़ा नहीं पेशानी पे उस माह-जबीं के
चार बोसे तो दिया कीजिए तनख़्वाह मुझे