मलक-उल-मौत मोअज़्ज़िन है मिरा वस्ल की रात
दम निकल जाता है जब वक़्त-ए-अज़ाँ आता है
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वस्ल से तब भरे हमारा पेट
दिल तंग उस में रंज-ओ-अलम शोर-ओ-शर हों जम्अ'
काफ़िर हो फिर जो शरअ' का कुछ भी करे ख़याल
शायद मिज़ाज हम से मुकद्दर है यार का
सुब्हा से मतलब न कुछ ज़ुन्नार से
फल है उस बुत की आश्नाई का
हुजूम-ए-रंज-ओ-ग़म-ओ-दर्द है मरूँ क्यूँकर
ईजाद ग़म हुआ दिल-ए-मुज़्तर के वास्ते
क़ातिल के कूचे में हमा-तन जाऊँ बन के पाँव
हर इक फ़िक़रे पे है झिड़की तो है हर बात पर गाली
सर मिला है इश्क़ का सौदा समाने के लिए