ज़ीनत-ए-उनवाँ है मज़मूँ आलम-ए-तौहीद का
ज़ीनत-ए-उनवाँ है मज़मूँ आलम-ए-तौहीद का
मतला-ए-दीवाँ न क्यूँ मतला बने ख़ुर्शीद का
ये सवाद-ए-नामा है या सुर्मा-ए-तस्ख़ीर है
है बयाज़-ए-सफ़्हा या है नूर सुब्ह-ए-ईद का
दैर में है वो न है काबे में और है सब कहीं
तालिब-ए-नज़्ज़ारा को गर हो सलीक़ा दीद का
हो जो उस के नाम पर आग़ाज़ पूरा हो वो काम
है बर-आरिंदा वही हर शख़्स की उम्मीद का
जो मिला उस से उसे कहता है आलम मर गया
नाम मुर्दा रख दिया है ज़िंदा-ए-जावेद का
लन-तरानी ही रही उस शोख़ को उश्शाक़ से
हौसला पैदा न किस किस को हुआ गो दीद का
ताज़ा मज़मूँ 'सेहर' अपनी तब्-ए-मौज़ूँ से निकाल
हो न तू तर्ज़-ए-सुख़न में आश्ना तक़लीद का
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