मुद्दआ' गिर्या से कुछ इश्क़ का इज़हार नहीं
मुद्दआ' गिर्या से कुछ इश्क़ का इज़हार नहीं
क्या कहूँ तुम से कि कहने में दिल-ए-ज़ार नहीं
इस में क्या ज़िल्लत-ए-यूसुफ़ सर-ए-बाज़ार नहीं
सामने तेरे कोई उस का ख़रीदार नहीं
हो गया आज से बस इल्म-ए-क़ियाफ़ा बातिल
सादगी से ये खुला था कि सितमगार नहीं
सब तरह से तो वो अच्छे हैं पर अच्छे क्या हैं
इक यही ऐब है कैसा कि वफ़ादार नहीं
तलब-ए-बोसा-ए-रुख़्सार को जाने दीजे
कौन सी बात है जिस में तुम्हें इंकार नहीं
याँ ये मंज़ूर कि मतलब को ज़बाँ पर लाएँ
वाँ है अंगुश्त लबों पर कि ख़बर-दार नहीं
पूछते पूछते आ जाओ मेरे घर की तरफ़
है पता ये कि निशान-ए-दर-ओ-दीवार नहीं
मेरे रोने पे वो हँस हँस के ये कहना तेरा
कि तुनुक-ज़र्फ़ से छुपते कभी असरार नहीं
कोई पिस जाए कि कट जाए बला से उन की
कुछ ख़बर उन को किसी की दम-ए-रफ़्तार नहीं
तार-ए-अन्फ़ास हैं सीने के नुमायाँ वर्ना
देखने को भी गरेबाँ में कोई तार नहीं
सच तो ये है कि है 'मुश्ताक़' अदू से अच्छा
वर्ना बंदा तो किसी का भी तरफ़-दार नहीं
(429) Peoples Rate This