तेरी फ़ुर्क़त में शराब-ए-ऐश का तोड़ा हुआ
जाम-ए-मय दस्त-ए-सुबू के वास्ते फोड़ा हुआ
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कुफ्र-ओ-इस्लाम में तौलें जो हक़ीक़त तेरी
ज़ाहिदो पूजा तुम्हारी ख़ूब होगी हश्र में
उम्र बाक़ी राह-ए-जानाँ में बसर होने को है
हो गया मामूर आलम जब किया दरबार-ए-आम
सब ने लूटे उन के जल्वे के मज़े
बोसे हैं बे-हिसाब हर दिन के
ख़ूब ताज़ीर-ए-गुनाह-ए-इश्क़ है
ख़ूबान-ए-फुसूँ-गर से हम उलझा नहीं करते
दिल ले के पलकें फिर गईं ज़ुल्फ़ों की आड़ में
तिरे कूचे से जुदा रोते हैं शब को आशिक़
मुझ को अपने साथ ही तेरे सुलाने की हवस
दश्त-ए-वहशत में नहीं मिलता है साया काँपता