सख़्ती-ए-दहर हुए बहर-ए-सुख़न में आसाँ
क़ाफ़िए आए जो पत्थर के मैं पानी समझा
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मज़मून अगर राह में हाथ आता है
उसी हूर की रंगत उड़ी रोने से हमारे
लगाईं ताक के उस मस्त ने जो तलवारें
शबनम की है अंगिया तले अंगिया की पसीना
खाते हैं अंगूर पीते हैं शराब
ख़ाल-ओ-ख़त से ऐब उस के रू-ए-अक़्दस को नहीं
मुंडेरों पर छिड़क दे अपने कुश्तों का लहू ऐ गुल
झूटी बातें मुझे याद आईं जो उस की शब-ए-हिज्र
ज़ाहिदो पूजा तुम्हारी ख़ूब होगी हश्र में
कुछ नहीं हासिल सिपर को चीर को या तलवार तोड़
राह कर के उस बुत-ए-गुमराह ने धोका दिया
मेरी शम-ए-अंजुमन में गुल है गुल में ख़ाक है