की तर्क मैं ने शैख़-ओ-बरहमन की पैरवी
दैर-ओ-हरम में मुझ को तिरा नाम ले गया
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सब ने लूटे उन के जल्वे के मज़े
जान देता हूँ मगर आती नहीं
ख़ूब ताज़ीर-ए-गुनाह-ए-इश्क़ है
अक्स-ए-रुख़-ए-गुलगूँ से तमाशा नज़र आया
ग़म सहते हैं पर ग़म्ज़ा-ए-बेजा नहीं उठता
आशिक़ बना के हम को जलाते हैं शम्अ'-रू
दीदार का मज़ा नहीं बाल अपने बाँध लो
शुक्र है जामा से बाहर वो हुआ ग़ुस्से में
हाथ मिलवाते हो तरसाए गिलौरी के लिए
कभी पयाम न भेजा बुतों ने मेरे पास
फ़ौज-ए-मिज़्गाँ का कुछ इरादा है
ऐ बुत ये है नमाज़ कि है घात क़त्ल की